सपने
तुम्हें भूले हफ्ते हो गए हैं अब,
और तुम्हे खोए भी
सच कहूं, याद किया भी नहीं जाता अब।
यूं कि
सिर्फ तुम ही नहीं
तुम्हारे जैसी किसी और को भी
भूलता रहता हूं कभी कभी।
पता है? कल सपने में आयी थी तुम
खुद कैसा था, ठीक-ठीक याद नही,
अंधेरा जो था, रात जो थी।
लेकिन, तुम वैसी की वैसी,
वही- तुम, वही रूप
रंग विदेशी जैसे धूप।
और, अनजाने रिश्ते के धागे से
रात भर खींचती रही तुम
और खिचता गया मैं।
बेमतलब - बेहिसाब,
और उस सपने में तुम और मैं कम,
हमारा बचपन ज़्यादा होता है हर-बार।
कक्षा आठ-नौ-दस
यही हर बार होता है उन सपनों में।
थक कर,
उन सपनों को बेच
कहानियां बेचना चाहता हूं मैं अब,
जिन में ना तुम हो
ना आनेवाली ज़िन्दगी में तुम्हारे सपने।
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