नींद
जब आंख थी लगी
बेहद शांत सी थी ये दुनिया
या
दुनिया थोड़ी शांत हुई
तभी आई ये मिनट भर बारिश जैसी नींद।
दवा होती थी ये नींद।
बचपन- बेफ़िक्री,
जवानी- इश्क़ का मर्ज़
आनेवाला वक़्त- कुढ़न
और
कुढ़न में नींद कहां आती है?
अगर नींद आती भी
तो सपने में जाग जाने का डर
और
जाग जाने में नींद ना आने का डर।
अब शायद नीम बन चुकी है ये नींद।
ज़िन्दगी जैसे कोई ज़हरीली फ़िल्म
किरदार सारे उलझे से,
जो बोलते रहते हैं चलती फ़िल्म में
बिना ज़रूरत के
बिना उद्देश्य के।
रॉलिंग क्रेडिट्
और
उम्र का हिसाब कहता है कि
फ़िल्म ख़त्म होने में ही सुख है,
आंखें मूंद लेने में हीं सुख है।
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