गुलज़ार साहब की ऐश ट्रे




ये जो नीली रेखाओं के बीच रेंगता चला आ रहा हूं मैं
ये को बीच सपने में जाग कर लिखता चला आ रहा हूं मैं -
तुम्हें सच जान के,
माने बग़ैर
कि तुम दूर कहीं सड़क के छोर पे खड़ी हो
किसी और की ऊंगली पकड़ के,
जिसे छोड़ना सही भी नहीं।

ख़ैर,
आख़िरी पन्ने पे ठीक वैसी एक तस्वीर बनाई है मैंने
जिसमें तुम, मैं और तुम्हारा ' वो ' भी है।

सच कहूं,
उस पन्ने को अक्सर मोड़ मोड़ के खींच लेता हूं मैं तुम्हें, उससे।
ज़बरदस्ती नहीं, लेकिन
अब क्या करूं,
तस्वीर भी मेरी
उस तस्वीर का रंगरेज़ भी मैं
तस्वीर की ' तुम ' भी मेरी
तुम्हारा ' वो ' भी मेरा
वो पन्ना भी मेरा।

बीते याद की तस्वीरें कई और भी हैं तुम्हारी
जिन्हें बनाना चाहता हूं मैं आज
जिसमें सिर्फ तुम और मैं हों, अकेले
याद शहर के उस सड़क के छोर पे भी सिर्फ हम हो, अकेले।
 स्याही की नब्ज़ भी तेज़ है
 पर
 जगह नहीं है अब डायरी में
 ये ऐश ट्रे पूरी भर गई है। 

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