इन्कलाब
ख़ुद की नौकरी का बोझ कुछ ऐसा है
मानो ये पा ली तो दुनिया जीत ली।
चार लोगों का परिवार का पेट भरने लगे तो दुनिया जीत ली।
इस सोच से लड़ने वाला दिमागी दर्द पूछता है व्यंग से:
क्या ऐसे लाओगे इन्कलाब?
ज़िन्दगी भर आती - जाती सरकारों में
सिर्फ़ खोट निकालने का कुव्वत है भीतर!
जो लड़ाई गरीबी से लड़नी चाहिए
उसकी ऊर्जा पड़ोसी से लड़ाई में हो जा रही है ख़र्च
अगर सच में नहीं हो बेबस
तो जवाब दो:
क्या ऐसे लाओगे इन्कलाब?
कुर्सी पर बैठ
छत से जो एकटक देखते रहते हो चांद को -
बंट के दो दिखने लगेंगे तुम्हें,
वैसे, पसंद उसे भी नहीं है तुम्हारा यूं बेमतलब घूरना।
कहे वो कि
अगर इश्क़ ही लिखते रहे ज़िन्दगी भर तो
इश्क़ भी बंट जाएगा मैला होकर।
अब
उठाओ कलम, फेरो नज़र तीरंदाज़ माफिक,
तुम्हारे तबके में भी कई गरीब चेहरे होंगे
जिसे तुम कुछ पढ़ा सको जो तुमने सीखा हो
वरना
दस साल बाद
वही लौटेंगे प्रवासी मजदूरों की टोली में
और पूछ लेंगे तुमसे:
क्या बन के शायर ले आए इन्कलाब?
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