कल, आज और अभी



कल,

उधार के सिक्कों में उलझी ज़िन्दगी थी
बेवक्त नाराज़ लेकिन बेहिसाब जायज़।

रहती साथ इस शर्त पे
कि,
साथ की मेरी -
सुबह बोझिल, रात बेचैन
सिकुड़े से भौं, डरे से नैन
बस सपने वही.... कद से कहीं ऊंचा...हर वक़्त।

आज,

सड़क पर कुछ लोग दिखे
जो दिख जाते हैं रोज़ाना।
ना हाथों में सिक्के
ना चप्पल हुए होंगे पैरों में-
यूं कि, मैं जानता हूं उनको।
बस पुश्तैनी संपत्ति का फ़र्क
और थोड़े कपड़ों का फ़र्क- जो कि मेरा भी नहीं है।
जवाब सामने था, और, दिखा भी।


अभी,

कोई पुरानी फ़िल्म रवां है
लैपटॉप के पर्दे पर।
दो हीरो
दो हीरोइन
और, एक विलेन,
जिसे मरना है अंत में।

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