रेल की यात्रा
कुछ पचास लोग हैं जो बैठे हैं मेरे साथ,
आंखें हमारे जैसी ही हैं इनकी
जिसके नीचे काले घेरे यूं दफन हैं
जैसे बीता हुआ कल हो इनका
या आनेवाले कल का बोझ हो सर पे।
ख़ैर
ट्रेन के इस डब्बे में
खुश बस एक सामने अजीब सा चेहरा है,
उम्र कोई चार वर्ष-
जो बैठा है अपनी मां के गोद में
ना रो रहा
ना सो रहा
ना जाने कौन सी दवा पिलाई है उस मां ने?
बाकी लोगों की बात करूं
तो सब के चेहरे ठंडे हैं
और ठंड का असर नहीं है ये।
ना कोई मुस्कान
नाहि कोई दिखावटी दर्द
यूं कहो
बस कहने को जान मालूम पड़ता है इनमें।
हरकत और हालात वैसे ही
जैसे कोई
ठंडा शव अभी भी जल रहा हो बनारस के घाट पर,
जिसे अभी मुक्ति - सुख का एहसास करवाया जा रहा हो।
उसे भी ना ठंड का असर है
नाहि उस रोते हुए बच्चे की फ़िक्र,
जो अभी भी रो रहा होगा
बाकी लोगों को देखकर।
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