लेखक की लाठी
सड़क से गुजरते एक छोटे बच्चे ने सुना
हैरान हुए लेखक के मुंह से धाराप्रवाह गालियां।
भीड़ की कानाफूसी ने बताया उस बच्चे को
कि कुछ बातें थी जो बर्दाश्त ना हुईं उस शाम।
दिन होली का
गाढ़ा रंग भी होली का
जो उतरा ना था चेहरे से उसके।
उस दिन उस बच्चे और लेखक ने वो सब देखा
जो देखता था वो फैंसी फ़िल्मों में
और लिखता जो वो था अपनी कहानियों में।
शोर - शराबा
भीड़ - भाड़
पुलिस - पत्रकार,
और लेखक के हाथों में लाठी!
लेखक की नज़रें बता रही थी लगातार कि
अगर हो हीं जाती बातें बर्दाश्त,
तो गाढ़े रंग की जगह
काली स्याही चिपक जाती चेहरे पर
और निशान रहते तब तक, जब तक,
पैर चलते ज़मीन पर।
ख़ैर, अपने सपने सहेजते और भीड़ से बचते
उस बच्चे ने देख लिया था लेखक की भौं को,
जो कह रहे थे बेबाकी से -
"धूल से सने हुए पांव और
बेचैन आंखों में छिपी कालिख,
सबका हिसाब लिया जाएगा।"
दोबारा।
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