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Showing posts from August, 2020

नींद

जब आंख थी लगी बेहद शांत सी थी ये दुनिया या दुनिया थोड़ी शांत हुई तभी आई ये मिनट भर बारिश जैसी नींद। दवा होती थी ये नींद। बचपन- बेफ़िक्री, जवानी- इश्क़ का मर्ज़ आनेवाला वक़्त- कुढ़न और कुढ़न में नींद कहां आती है? अगर नींद आती भी तो सपने में जाग जाने का डर और जाग जाने में नींद ना आने का डर। अब शायद नीम बन चुकी है ये नींद। ज़िन्दगी जैसे कोई ज़हरीली फ़िल्म किरदार सारे उलझे से, जो बोलते रहते हैं चलती फ़िल्म में बिना ज़रूरत के बिना उद्देश्य के। रॉलिंग क्रेडिट् और उम्र का हिसाब कहता है कि फ़िल्म ख़त्म होने में ही सुख है, आंखें मूंद लेने में हीं सुख है।

इन्कलाब

ख़ुद की नौकरी का बोझ कुछ ऐसा है मानो ये पा ली तो दुनिया जीत ली। चार लोगों का परिवार का पेट भरने लगे तो दुनिया जीत ली। इस सोच से लड़ने वाला दिमागी दर्द पूछता है व्यंग से: क्या ऐसे लाओगे इन्कलाब? ज़िन्दगी भर आती - जाती सरकारों में सिर्फ़ खोट निकालने का कुव्वत है भीतर! जो लड़ाई गरीबी से लड़नी चाहिए उसकी ऊर्जा पड़ोसी से लड़ाई में हो जा रही है ख़र्च अगर सच में नहीं हो बेबस तो जवाब दो: क्या ऐसे लाओगे इन्कलाब? कुर्सी पर बैठ छत से जो एकटक देखते रहते हो चांद को - बंट के दो दिखने लगेंगे तुम्हें, वैसे, पसंद उसे भी नहीं है तुम्हारा यूं बेमतलब घूरना। कहे वो कि अगर इश्क़ ही लिखते रहे ज़िन्दगी भर तो इश्क़ भी बंट जाएगा मैला होकर। अब  उठाओ कलम, फेरो नज़र तीरंदाज़ माफिक,  तुम्हारे तबके में भी कई गरीब चेहरे होंगे  जिसे तुम कुछ पढ़ा सको जो तुमने सीखा हो  वरना  दस साल बाद  वही लौटेंगे प्रवासी मजदूरों की टोली में  और पूछ लेंगे तुमसे:  क्या बन के शायर ले आए इन्कलाब?

विद्रोही

समाज में मैंने उस औरत से प्रेम किया⁣ जो डरती रही समाज से।⁣ वो मानती भी रही उसी खोखले समाज को,⁣ जिसने हज़ारों दफा उसे बदनाम करने की कोशिशें की⁣ और मैं,⁣ उसे बदनाम होने से बचाने को⁣ चोरी - छिपे चुंबनों से गुज़ारा करता रहा, उम्र भर। लोग कहते हैं, वैश्या दिखती थी वो जब सिगरेट पीती थी वो, हां वैश्या जैसी खूबसूरत दिखती थी वो। वही लोग जो बताते हैं मुझे इश्क़ की कहानियों में महफूज़- वो मुझे नहीं जानते। तुम नहीं जानते कि आग का गोला लिए ये बालक कैसा है। कितना बेचैन है? और, समाज में इतनी कुरीतियां हैं कि अगर लिख दूं मैं और वो भी, अपने तरीके से तो पचा नहीं पाओगे तुम। उस अनहोनी के बाद ना मैं तुम्हारा दोस्त रह पाऊंगा नाहिं भाई, ना बेटा, ना बाप....... बस ' विद्रोही ' कह पाओगे तुम मुझे।

लेखक की लाठी

सड़क से गुजरते एक छोटे बच्चे ने सुना हैरान हुए लेखक के मुंह से धाराप्रवाह गालियां। भीड़ की कानाफूसी ने बताया उस बच्चे को कि कुछ बातें थी जो बर्दाश्त ना हुईं उस शाम। दिन होली का गाढ़ा रंग भी होली का जो उतरा ना था चेहरे से उसके। उस दिन उस बच्चे और लेखक ने वो सब देखा जो देखता था वो फैंसी फ़िल्मों में और लिखता जो वो था अपनी कहानियों में। शोर - शराबा भीड़ - भाड़ पुलिस - पत्रकार, और लेखक के हाथों में लाठी! लेखक की नज़रें बता रही थी लगातार कि अगर हो हीं जाती बातें बर्दाश्त, तो गाढ़े रंग की जगह काली स्याही चिपक जाती चेहरे पर और निशान रहते तब तक, जब तक,  पैर चलते ज़मीन पर। ख़ैर, अपने सपने सहेजते और भीड़ से बचते उस बच्चे ने देख लिया था लेखक की भौं को, जो कह रहे थे बेबाकी से - "धूल से सने हुए पांव और बेचैन आंखों में छिपी कालिख, सबका हिसाब लिया जाएगा।" दोबारा।

प्रथम प्रेम

यूं तो पहला प्यार, प्यार नहीं होता रंगीन ख्वाब होता है कोई, जो साथ मिलकर देखते दो लोग हर बीतते दिन और रात में। तारे गिनते एक दूसरे के साथ इस बहाने कि बातें खतम ना हो जाए। और बातें खतम होने से बचाने को अब असंख्य बहाने सीख चुका हूं मैं। तुम सांसें सुनना जानते हो? उसके इस सवाल पर ज़ुबां पर चुप्पी जायज़ थी मेरी, पहली बार जो सुना था कुछ ऐसा। ना मालूम तो बताता चलूं मेरा ये पहला इश्क़, उसका पहला ना था। हां, उसे मालूम था कि रातों और बातों में क्या मेल होता है। मौसम दर मौसम बातों का तापमान क्या होना चाहिए, उसे मालूम था। हर रात सीखता कुछ नया जैसे प्रेम सीखना विद्या हो कोई, और मैं एकलव्य। आज अगर एहसान ना मानूं तो फ़रामोश हो जाऊंगा मैं, सांसें सुनना, साथ सपने देखना चुगली करना, तारे गिनना और दिखाना सब सिखाया था उसने। सच कहूं, समंदर भर इश्क़ सीखने की लालच में बस इश्क़ सहेजना सीख नहीं पाया और अब वक़्त की तंगी है।

रेल की यात्रा

कुछ पचास लोग हैं जो बैठे हैं मेरे साथ, आंखें हमारे जैसी ही हैं इनकी जिसके नीचे काले घेरे यूं दफन हैं जैसे बीता हुआ कल हो इनका या आनेवाले कल का बोझ हो सर पे। ख़ैर ट्रेन के इस डब्बे में खुश बस एक सामने अजीब सा चेहरा है, उम्र कोई चार वर्ष- जो बैठा है अपनी मां के गोद में ना रो रहा ना सो रहा ना जाने कौन सी दवा पिलाई है उस मां ने? बाकी लोगों की बात करूं तो सब के चेहरे ठंडे हैं और ठंड का असर नहीं है ये। ना कोई मुस्कान नाहि कोई दिखावटी दर्द यूं कहो बस कहने को जान मालूम पड़ता है इनमें। हरकत और हालात वैसे ही जैसे कोई ठंडा शव अभी भी जल रहा हो बनारस के घाट पर, जिसे अभी मुक्ति - सुख का एहसास करवाया जा रहा हो। उसे भी ना ठंड का असर है नाहि उस रोते हुए बच्चे की फ़िक्र, जो अभी भी रो रहा होगा बाकी लोगों को देखकर।

लोग - बाग

ये शहर जो मेरा, तुम्हारा, हम सब का है, हर बार जलने की ताक में लगा रहता है, इस शहर के लोग भी। हम असामाजिक तत्व बोल कर हर बार दिलासा दे देते हैं ख़ुद को, पता तुम्हें भी है कि हर दिमाग में यही तत्व बसते हैं। हर कोने में हिन्दू - मुस्लिम भाई - भाई का झूठ पलता है। और सच... सच बस एक दूसरे की लाल आंखें हैं।

कल, आज और अभी

कल, उधार के सिक्कों में उलझी ज़िन्दगी थी बेवक्त नाराज़ लेकिन बेहिसाब जायज़। रहती साथ इस शर्त पे कि, साथ की मेरी - सुबह बोझिल, रात बेचैन सिकुड़े से भौं, डरे से नैन बस सपने वही.... कद से कहीं ऊंचा...हर वक़्त। आज, सड़क पर कुछ लोग दिखे जो दिख जाते हैं रोज़ाना। ना हाथों में सिक्के ना चप्पल हुए होंगे पैरों में- यूं कि, मैं जानता हूं उनको। बस पुश्तैनी संपत्ति का फ़र्क और थोड़े कपड़ों का फ़र्क- जो कि मेरा भी नहीं है। जवाब सामने था, और, दिखा भी। अभी, कोई पुरानी फ़िल्म रवां है लैपटॉप के पर्दे पर। दो हीरो दो हीरोइन और, एक विलेन, जिसे मरना है अंत में।

गुलज़ार साहब की ऐश ट्रे

ये जो नीली रेखाओं के बीच रेंगता चला आ रहा हूं मैं ये को बीच सपने में जाग कर लिखता चला आ रहा हूं मैं - तुम्हें सच जान के, माने बग़ैर कि तुम दूर कहीं सड़क के छोर पे खड़ी हो किसी और की ऊंगली पकड़ के, जिसे छोड़ना सही भी नहीं। ख़ैर, आख़िरी पन्ने पे ठीक वैसी एक तस्वीर बनाई है मैंने जिसमें तुम, मैं और तुम्हारा ' वो ' भी है। सच कहूं, उस पन्ने को अक्सर मोड़ मोड़ के खींच लेता हूं मैं तुम्हें, उससे। ज़बरदस्ती नहीं, लेकिन अब क्या करूं, तस्वीर भी मेरी उस तस्वीर का रंगरेज़ भी मैं तस्वीर की ' तुम ' भी मेरी तुम्हारा ' वो ' भी मेरा वो पन्ना भी मेरा। बीते याद की तस्वीरें कई और भी हैं तुम्हारी जिन्हें बनाना चाहता हूं मैं आज जिसमें सिर्फ तुम और मैं हों, अकेले याद शहर के उस सड़क के छोर पे भी सिर्फ हम हो, अकेले।  स्याही की नब्ज़ भी तेज़ है  पर  जगह नहीं है अब डायरी में  ये ऐश ट्रे पूरी भर गई है। 

साथी

रातों को रात भर देखने की आदत हो गई थी इन नंगी आंखों को जब तुम थे मिले आंखें बंद.......बातें बंद, सिर्फ सांसें सुनते थे हमदोनो सुबह तक.....फोन पर बेहिसाब। सुबह का खाना रात का भोज  सब बंद सा, जैसे तृप्त था मैं। मिलन से पहले बीते दिनों की अमावस की रात याद है मुझे, कितनी काली होती थी ये- जैसे मेरा रंग मेरा ढंग मेरा अंग मेरी सुबह। अब के जब तुम मिले हो तो थोड़ा ठहरो साथ बैठकर रोक लो मुझे भीड़ में भीड़ हो जाने से। थोड़ी कोशिश तुम करो थोड़ा मैं भी कर ही लूंगा मान लेंगे उम्रदराज लोगों की बातें ठंड की अनचाही बारिश में कि जब यहां तक रोक कर रखा है तुमने खुद को मेरे साथ, तो सुनो आज सालगिरह है हमारी आज तो जाने की ज़िद ना करो।

Writer's block

बचा नहीं कुछ लिखने को या लिखना भूल सा गया हूं मैं या आता ही नहीं था कभी लिखना और लिखावट भी शायद झूठ होगी। यूं कि लोग वही.....कहानी वही बस चेहरे नए... निशानी वही। थोड़ा प्रेम, थोड़ी बहस....बाद का पता नहीं शायद तुम्हें भी नहीं। अगर मैं कहूं- जिए हुए शामों को आधा-पौना फिर से जीना उधार सा लगता है। तुम्हे भी? बताओ ना। तुम कुछ नया जी रहे हो क्या? साजन-ईला, जॉर्डन-हीर देव-पारो, आदित्य-गीत इनमें से कोई हो तुम? दिल में कुछ नाम हैं जो अभी भी याद से हैं? या फिर रोज़ का वही बातूनी प्रेम जो प्रेम नहीं है....जो साफ़-साफ़ उसे भी नहीं दिखता, और, शायद तुम्हे भी नहीं।

सपने

तुम्हें भूले हफ्ते हो गए हैं अब, और तुम्हे खोए भी सच कहूं, याद किया भी नहीं जाता अब। यूं कि सिर्फ तुम ही नहीं तुम्हारे जैसी किसी और को भी भूलता रहता हूं कभी कभी। पता है? कल सपने में आयी थी तुम खुद कैसा था, ठीक-ठीक याद नही, अंधेरा जो था, रात जो थी। लेकिन, तुम वैसी की वैसी, वही- तुम, वही रूप रंग विदेशी जैसे धूप। और, अनजाने रिश्ते के धागे से रात भर खींचती रही तुम और खिचता गया मैं। बेमतलब - बेहिसाब, और उस सपने में तुम और मैं कम, हमारा बचपन ज़्यादा होता है हर-बार। कक्षा आठ-नौ-दस यही हर बार होता है उन सपनों में। थक कर, उन सपनों को बेच कहानियां बेचना चाहता हूं मैं अब, जिन में ना तुम हो ना आनेवाली ज़िन्दगी में तुम्हारे सपने।